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लक्ष्य तक पहुंचने--क्यों कहते हैं मलमास?18 सितंबर से 16 अक्टूबर तक अधिकमास:

अधिकमास में जरूरत की चीजें खरीदने की मनाही नहीं है, इस माह विवाह की तारीख भी तय की जा सकती है



 क्यों कहते हैं मलमास?

अधिकमास में विवाह, मुंडन, नामकरण, जनेऊ संस्कार जैसे मांगलिक कर्म नहीं किए जाते हैं। इस माह में विवाह की तारीख तय की जा सकती है। नए घर की बुकिंग की जा सकती है। जरूरत के सामान जैसे वस्त्र, खाने-पीने की चीजें आदि खरीदने की मनाही नहीं है। इस माह में सूर्य संक्रांति नहीं होती है यानी पूरे अधिकमास में सूर्य का राशि परिवर्तन नहीं होगा। इस माह में संक्रांति नहीं होने के कारण ये मास मलिन कहा गया है। इसलिए इसे मलमास कहते हैं।

क्यों कहते हैं पुरषोत्तम मास?

इस नाम के संबंध में कथा प्रचलित है कि मलिन होने की वजह से कोई भी देवता इस मास का स्वामी बनना नहीं चाहता था। तब मलमास ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। विष्णुजी माह की प्रार्थना से प्रसन्न हुए और इसे अपना श्रेष्ठ नाम पुरुषोत्तम प्रदान किया। साथ ही, विष्णुजी ने इस माह को वरदान दिया कि जो भी भक्त इस माह में भगवत कथा श्रवण, मनन, भगवान शिव का पूजन, धार्मिक कर्म, दान-पुण्य करेगा उसे अक्षय पुण्य मिलेगा।

पितृ पक्ष के बाद शुरू नहीं होगी नवरात्रि

हर बार पितृ पक्ष के बाद अगले दिन से ही नवरात्रि शुरू होती है। लेकिन, इस साल पितृ पक्ष के बाद अधिकमास शुरू हो जाएगा। इस वजह से पितृ पक्ष और नवरात्रि में पूरे एक माह का अंतर रहेगा। नवरात्रि अगले माह अक्टूबर की 17 तारीख से शुरू होगी।


18 से शुरू होगा पुरुषोत्तम मास, इस महीने किए गए धार्मिक कामों का मिलता है 10 गुना पुण्य- व्रत और पर्व-



 18 सितंबर से पुरुषोत्तम मास शुरू हो जाएगा। मान्यता है कि इस दौरान किए गए धार्मिक कार्यों का किसी भी अन्य माह में किए गए पूजा-पाठ से 10 गुना अधिक फल मिलता है। असल में हर तीन साल में एक बार एक अतिरिक्त माह होता है। जिसे अधिकमास, मलमास या पुरुषोत्तम मास के नाम से जाना जाता है। पं गणेश मिश्र ने बताया कि 18 सितंबर से 16 अक्टूबर तक पुरुषोत्तम मास रहेगा।

  • भारतीय हिंदू कैलेंडर सूर्य मास और चंद्र मास की गणना के अनुसार चलता है। अधिकमास चंद्र वर्ष का एक अतिरिक्त भाग है, जो हर 32 माह, 16 दिन और 10 घंटे के अंतर से आता है। यह सूर्य और चंद्र वर्ष के बीच के अंतर के संतुलन के लिए होता है। भारतीय गणना पद्धति के मुताबिक हर सूर्य वर्ष 365 दिन और करीब 6 घंटे का होता है, वहीं चंद्र वर्ष 354 दिनों का माना जाता है। दोनों वर्षों के बीच लगभग 11 दिनों का अंतर होता है, जो हर तीन वर्ष में लगभग 1 मास के बराबर हो जाता है। इसी अंतर को खत्म करने के लिए हर तीन साल में एक चंद्र मास आता है, जिसे अतिरिक्त होने के कारण अधिकमास का नाम दिया गया है।

कुंडली दोषों का भी होता है निराकरण
अधिकमास में समस्त धार्मिक कृत्यों, चिंतन-मनन, ध्यान, योग आदि के माध्यम से साधक अपने शरीर में समाहित पांचों तत्वों में संतुलन स्थापित करने का प्रयास करता है। ऐसी मान्यता है कि इस दौरान किए गए प्रयासों से समस्त कुंडली दोषों का भी निराकरण हो जाता है।

विष्णु मंत्रों का जाप लाभकारी
पुराणों के अनुसार इस मास के दौरान यज्ञ-हवन के अलावा श्रीमद् देवी भागवत, श्री भागवत पुराण, श्री विष्णु पुराण, भविष्योत्तर पुराण आदि का श्रवण, पठन, मनन विशेष रूप से फलदायी होता है। अधिकमास के अधिष्ठाता भगवान विष्णु हैं, इसीलिए इस पूरे समय में विष्णु मंत्रों का जाप विशेष लाभकारी होता है। ऐसा माना जाता है कि अधिक मास में विष्णु मंत्र का जाप करने वाले साधकों को भगवान विष्णु स्वयं आशीर्वाद देते हैं।

अधिपति कैसे बने श्री विष्णु
पौराणिक कथा के अनुसार भारतीय मनीषियों ने अपनी गणना पद्धति से हर चंद्र मास के लिए एक देवता निर्धारित किए। चूंकि अधिकमास सूर्य और चंद्र मास के बीच संतुलन बनाने के लिए प्रकट हुआ, तो इस अतिरिक्त मास का अधिपति बनने के लिए कोई देवता तैयार ना हुए। ऐसे में ऋषि-मुनियों ने भगवान विष्णु से आग्रह किया कि वे ही इस मास का भार अपने ऊपर लें। भगवान विष्णु ने इस आग्रह को स्वीकार कर लिया और इस तरह यह पुरुषोत्तम मास भी बन गया।

जो कार्य नियमित रूप से हो रहे हों उनको करने में कोई बंधन या दबाव नहीं है
सभी पवित्र कर्म होते हैं वर्जित : ऐसी मान्यता है कि अतिरिक्त होने के कारण यह मास मलिन होता है। इसलिए इस मास के दौरान हिंदू धर्म के विशिष्ट व्यक्तिगत संस्कार जैसे नामकरण, यज्ञोपवीत, विवाह और सामान्य धार्मिक संस्कार जैसे गृह प्रवेश नहीं किया जाता है। हालांकि जो काम नियमित रूप से हो रहे हों उनको करने में कोई बंदिया या दबाव नहीं है। नई चीजों की खरीदी इस महीने में की जा सकती है। सीमान्त, जातकर्म और अन्नप्राशन संस्कार किए जा सकते हैं। गया में श्राद्ध भी इस दौरान किया जा सकता है, उसकी भी वर्जना नहीं है।


किसी भी लक्ष्य तक पहुंचने के लिए पहले उसके बारे में पूरा ज्ञान हासिल करना जरूरी है, तभी मिल सकती है सफलता-




एक नए शिष्य ने गुरु से कहा कि मुझे भी आपकी तरह ही जल्दी से जल्दी दूसरों का गुरु बनना है, मेरी ये इच्छा कैसे पूरी हो सकती है

अगर हम कोई लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं तो उसके लिए हमें पूरी तैयारी करनी होती है। लक्ष्य से जुड़ी पूरी जानकारी के साथ ही धैर्य और कड़ी मेहनत भी जरूरी है। इस संबंध में एक लोक कथा प्रचलित है। कथा के अनुसार पुराने समय में एक आश्रम में गुरु अपने कई शिष्यों के साथ रह रहे थे। सभी शिष्य अपने गुरु का सम्मान करते थे और उनकी हर आज्ञा का पालन करते थे। एक दिन आश्रम में नया शिष्य आया।

नए शिष्य ने देखा कि सभी गुरु का बहुत सम्मान करते हैं। गुरु की हर बात मानते हैं। उसने संत से कहा कि गुरुजी मैं आपकी तरह ही जल्दी से जल्दी गुरु बनना चाहता हूं, मैं भी चाहता हूं कि मेरे कई शिष्य हों और मुझे से आपकी तरही ही मान-सम्मान मिले।

गुरु शिष्य की पूरी बात सुनी और कहा कि इस लक्ष्य को पाने के लिए तुम्हें कई वर्षों तक कड़ी मेहनत करना होगी, धैर्य बनाए रखना होगा, ज्ञान हासिल करना होगा, तभी तुम्हें सफलता मिल सकती है। कठिन साधना के बाद ही अपनी योग्यता से तुम्हारी ये इच्छा पूरी हो सकती है।

शिष्य ने पूछा कि मुझे इंतजार क्यों करना पड़ेगा? मैं आज से ही शिष्यों को ज्ञान क्यों नहीं दे सकता? इसके बाद गुरु ने शिष्य को तख्त से नीचे खड़े होने के लिए कहा और गुरु स्वयं तख्त पर खड़े हो गए। इसके बाद गुरु ने शिष्य से कहा कि जरा मुझे ऊपर वाले तख्त पर पहुंचा दो।

गुरु की बात सुनकर शिष्य ने कहा कि गुरुजी, मैं खुद नीचे खड़ा हूं तो आपको ऊपर कैसे पहुंचा सकता हूं? इसके लिए तो मुझे भी ऊपर आना होगा। गुरु ने हंसते हुए कहा कि ठीक इसी तरह अगर तुम किसी शिष्य को ऊपर उठाना चाहते हो तो पहले तुम्हें खुद का स्तर भी ऊंचा करना होगा। तभी तुम अच्छे गुरु बन सकते हो। इसके लिए तुम्हें अपना ज्ञान बढ़ाना होगा। सही-गलत की समझ विकसित करनी होगी। गुरु की ये बातें शिष्य को समझ आ गई।

 सीख यह है कि लक्ष्य कोई भी हो, उसमें सफलता तभी मिल सकती है, जब हमारे पास पर्याप्त जानकारी हो, धैर्य और कड़ी मेहनत के साथ ही सही समय का भी इंतजार करना चाहिए।


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